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शिक्षा पर पुनर्विचार करे व्यवस्था के तीनों अंग

सतीश श्रीवास्तव। यमुनानगर, लखनऊ और गुरुग्राम। भले तीन शहरो के नाम हो, यहा के स्कूल परिसर खून से लथपथ है। जवान होते बच्चो के हाथो मे हथियार है। शिक्षक से सहपाठी तक निशाने पर आ गए है। शिक्षा के मदिर को आक्रामकता झकझोर रही है।
ऐसे मे व्यवस्था और व्यवस्थापक मौन नही रह सकते। साथ ही राजनीतिक लाभ के लिए किसी को इतना शोर मचाने की इजाजत भी नही दी जा सकती कि मुद्दा ही गौण हो जाए।

घटना स्तब्ध और बेचैन करने वाली है। यमुनानगर के विवेकानद स्कूल की प्रिसिपल रितू छाबड़ा की शनिवार दोपहर प्रिसिपल रूम मे घुसकर दिनदहाड़े हत्या कर दी गई। हत्यारा 12वी का छात्र है। लोगो ने उसे मौके पर काबू कर लिया।

यह घटना क्यो हुई?

ऐसा पहले भी तो हुआ।

गुरुग्राम के रेयान इटरनेशनल स्कूल मे पहली कक्षा के छात्र प्रद्युम्न की हत्या के मामले मे 11वी कक्षा का छात्र हिरासत मे है। लखनऊ के ब्राइटलैड स्कूल के पहली कक्षा के छात्र को चाकुओ से जख्मी करने के आरोप मे सातवी कक्षा की छात्रा को गिरफ्तार किया गया है। दोनो छुट्टी चाहते थे।

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चले जरा 20 साल पहले। उन्ही लोगो के स्कूल काल मे जिनके बच्चे आज स्कूलो मे ऐसे कारनामो को अजाम दे रहे है। आज प्रतियोगिता और प्रतिस्पर्धा बढ़ी है पर शिक्षको की प्रतिबद्धता सवालो मे है। पहले शिक्षको की प्रतिबद्धता, मान - सम्मान और गरिमा की रक्षा छात्र - अभिभावक और समाज की जिम्मेदारी थी। अब अभिभावक और छात्र उपभोक्ता है और व्यवस्था कही न कही पश्चिमी दुनिया की पिछलग्गू दिखती है। वहा 20- 30 साल पहले ही स्कूलो र्मे हसा की ऐसी वारदाते गाहे - बगाहे भारतीय मीडिया मे स्थान हासिल कर लेती थी।

शिक्षा व्यवस्था मे चार पक्ष है। शिक्षक, छात्र, अभिभावक और समाज। शिक्षक मे स्कूल प्रबधन से लेकर शैक्षणिक और गैर शैक्षणिक कर्मचारियो को भी शामिल कर लिया जाए। समाज का सबध व्यवस्था से है। व्यवस्था अर्थात कानून बनाने वाले, उसका पालन करने वाले और उसका पालन सुनिश्चित कराने वाले। अर्थात विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका।

स्कूल र्मे हसा की घटनाए बार-बार हो रही है इसलिए समाज अर्थात व्यवस्था सवालो के घेरे मे है। गौर करे। शिक्षक और शिक्षा पर पूजी और प्रभाव हावी है। विचारे, क्या शिक्षक को पेशेवर बनाने की होड़ मे शिक्षा के प्रति अनुराग और शौक से उसे दूर कर दिया गया है? नही पढ़ने वाले छात्रो को भी अगली कक्षा मे भेजने की व्यवस्था ने खालीपन पैदा किया है? साक्षर को शिक्षित घोषित करने का अदृश्य दबाव है। इससे उबरना होगा।

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गुनहगार बनाने और फिर उसे खोजने वाली व्यवस्था को जवाबदेही लेनी होगी। सरकारी स्कूलो को गर्त मे ले जाने के बाद औसत आमदनी वाले शहरी लोग शिक्षा के लिए निजी स्कूलो की तरफ पलायन कर चुके है। दूसरी तरफ कानून ऐसे बन चुके है कि हर गड़बड़ी के लिए शिक्षक ही गुनहगार है। निजी स्कूलो के शिक्षक कितने डरे और सहमे हुए है, इसके लिए जमीनी स्तर पर अध्ययन की जरूरत है। एक तरफ नौकरी का डर दूसरी तरफ ट्यूशन फीस भुगतान करने वाले छात्र-अभिभावक का डर। तीसरी तरफ समाज - व्यवस्था का डर। सभी पक्षो को विचार करना होगा कि शिक्षको का सम्मान और गरिमा कैसे कायम हो। ध्यान रहे, किसी भी मदिर की प्रतिष्ठा उसके पुजारी ही बढ़ाते है। वहा लाखो करोड़ दान करने वाले दाता - पूजीपति और व्यवस्थापक नही।

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